मर्सिया
मोहर्रम के बारे में मुझे ज़्यादा कुछ मालूम नहीं है. बस यही कि ये हज़रत हसन-हुसेन की शहादत का महाशोक है. बचपन में मुझे साथ के बच्चों की तरह ये बहुत शौक़ था कि मैं भी मुहर्रम के ताज़िये देखूँ लेकिन ये अरमान 17 साल की उमर में इलाहाबाद आकर ही पूरा हुआ. जिन लोगों की भावनाएँ इस घडी से जुडी हैं उनका पूरा सम्मान करते हुए मैं आपके लिये पेश कर रहा हूँ शाकिरा ख़लीली की आवाज़ में इस दुख का कारुणिक साझा. मिथकों के साथ समकालीन संवेदना का ऐसा सामंजस्य मुझे दुर्लभ लगता है. इस बात से अलग एक और बात कि मानवकंठ कितनी जादुई संभावनाएं लिये रहता है.आज की मशीनी कुकिंग से गुज़रते और संगीत के शोर से बजबजाते गाने एक तरफ रखिये और शाकिरा ख़लीली की आवाज़ दूसरी तरफ...अब मुझे लिखिये कि कैसा लगा!
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