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Showing posts from May, 2008

जो ब्लॉगर अपने लिखे शब्दों से प्यार करते हैं, उनके लिये सूचना!

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आपको यह जानकर शायद अच्छा लगे कि आर्ट ऑफ़ रीडिंग में हम एक नया फ़ीचर जोडने जा रहे हैं. हमने यह ब्लॉग बनाया ही इसलिये है कि आप छपे हुए शब्दों की ध्वन्यात्मक सुंदरता से दो चार हो सकें. इस दिशा में हम अपनी कारोबारी व्यस्तताओं और प्रोडक्शंस के थकाऊ चक्करों के बीच अपने मन की तरंग का काम उसी तरह करते रहेंगे जैसा आप अभी तक देखते-सुनते आए हैं. हमें अपनी साहित्यिक धरोहर के अनमोल मोतियों से दिली लगाव है और नितांत निजी कारणों और रुचियों से हम इस ख़ज़ाने के मोती आपके सामने रखते रहेंगे. संयोग से ये आपको भी अच्छे लगेंगे तो हम समझेंगे कि "हमारी और आपकी राय कितनी मिलती-जुलती है!" हाँ तो मैं एक नये फ़ीचर की बात कर रहा था. दरअस्ल ये नया फ़ीचर हमारे आपके प्यारे क़िस्सागो मुनीश मयख़ानवी के दिमाग़ की उपज है. हम दोनो एक दोपहर पीपल के एक पेड के नीचे सिगरेट से धुआँ उडाते हुए इस बात पर सहमत हुए कि यार लोग इतनी अच्छी-अच्छी पोस्टें अपने-अपने ब्लॉग्स पर लिखते हैं लेकिन कई बार ब्लॉग परिवार में मची हलचलों या ऐसे ही कुछ नामाक़ूल कारणों से वो पोस्टें इतनी तवज्जो नहीं हासिल कर पातीं, जिनकी वो हक़दार होती हैं, तो

धुआँ

मंटो की ये कहानी कई स्तरों पर मन की टटोल और कशमकश की कहानी है. आवाज़ मुनीश की है. कहानी कोई बीस मिनट लंबी है. सुनिये धुआँ.

केशव अनुरागी

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मंगलेश डबराल की कविता केशव अनुरागी बीते बरसों में ख़ासा चर्चा में रही. सुनिये उन्हीं की आवाज़ में केशव अनुरागी .यह कविता कोई पाँच साल पहले मैंने दिल्ली में मंगलेशजी के घर पर कई दूसरी कविताओं के साथ रिकॉर्ड की थी. अवधि कोई तीन मिनट है. पोस्ट प्रोडक्शन भी मैंने ही किया है.

जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे!

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आर्ट ऑफ़ रीडिंग का आप की तरफ़ से जो स्वागत हुआ है उसके लिये हम आपके आभारी हैं। आज सुनिये विनोद कुमार शुक्ल की कविता "जो मेरे घर कभी नहीं आएँगे". आवाज़ अतुल आर्य की है जिन्हें आप द नेशनल ज्योग्राफ़िक चैनेल, द हिस्ट्री चैनल और द डिस्कवरी चैनेल पर सुनते हुए ख़ूब पहचानते हैं. फ़ोटो सौजन्य: निर्मल-आनंद

इंस्टॉलमेंट

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पेश है भगवतीचरण वर्मा की कहानी इंस्टॉलमेंट . कहानी आज़ादी के पहले लिखी गई है. आवाज़ मुनीश की है. Duration: Approx. 10 Min

राग दरबारी से एक हिस्सा

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श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारी किसी परिचय का मुहताज नहीं है. आज सुनिये राग दरबारी का एक अंश. ------------------ क़िस्सागो: मुनीश Dur. 08 Min. 43 Sec.

बंदर चढा है पेड पर...

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बंदर चढ़ा है पेड़ पर करता टिली-लिली... सुनिये दिनेश कुमार शुक्ल की एक और कविता. दिनेश जी की एक कविता आप यहां पहले भी सुन चुके हैं. यहां प्ले को चटकाएं और कविता सुनें.

मर्सिया

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मोहर्रम के बारे में मुझे ज़्यादा कुछ मालूम नहीं है. बस यही कि ये हज़रत हसन-हुसेन की शहादत का महाशोक है. बचपन में मुझे साथ के बच्चों की तरह ये बहुत शौक़ था कि मैं भी मुहर्रम के ताज़िये देखूँ लेकिन ये अरमान 17 साल की उमर में इलाहाबाद आकर ही पूरा हुआ. जिन लोगों की भावनाएँ इस घडी से जुडी हैं उनका पूरा सम्मान करते हुए मैं आपके लिये पेश कर रहा हूँ शाकिरा ख़लीली की आवाज़ में इस दुख का कारुणिक साझा. मिथकों के साथ समकालीन संवेदना का ऐसा सामंजस्य मुझे दुर्लभ लगता है. इस बात से अलग एक और बात कि मानवकंठ कितनी जादुई संभावनाएं लिये रहता है.आज की मशीनी कुकिंग से गुज़रते और संगीत के शोर से बजबजाते गाने एक तरफ रखिये और शाकिरा ख़लीली की आवाज़ दूसरी तरफ...अब मुझे लिखिये कि कैसा लगा! Duration. 05Min 03Sec

काकी

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हमारा साहित्य कई कालजयी रचनाओं से भरा पडा है. मानवता की करुण दास्तानें और उनकी निर्दोष अभिव्यक्तियों की बानगियाँ चप्पे-चप्पे पर दर्ज हैं. रेडियो रेड समय-समय पर इन्हीं रचनाओं का महत्व और उत्सव रेखांकित करता रहता है. इसी क्रम में आज पेश है सियारामशरण गुप्त की शॉर्ट स्टोरी काकी . आवाज़ है हमारी सहकर्मी राखी की. अवधि : लगभग 5 मिनट

बू

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सआदत हसन मंटो किसी परिचय के मोहताज नहीं है. उन्हीं के शब्दों में- "ज़मानेके जिस दौर से हम गुज़र रहे हैं, अगर आप उससे नावाक़िफ़ हैं तो मेरे अफ़साने पढ़िये. अगर आप इन अफ़सानों को बर्दाश्त नहीं कर सकते तो इसका मतलब ये है कि ये ज़माना नाक़ाबिले बर्दाश्त है. मुझमें जो बुराइयां हैं वो इस अहद की बुराइयां हैं.मेरी तहरीर में कोई नुक़्स नहीं है.जिस नुक़्स को मेरे नाम से मंसूब किया जाता है, दरअस्ल मौजूदा निज़ाम का नुक़्स है--मैं हंगामापसंद नहीं. मैं लोगों के ख़याल-ओ-जज़्बात में हेजान पैदा करना नहीं चाहता.मैं तहज़ीबो तमद्दुन की और सोसायटी की चोली क्या उतारूंगा, जो है ही नंगी. मैं उसे कपड़े की पहनाने की कोशिश भी नहीं करता क्योंकि यह मेरा काम नहीं...लोग मुे सियाह क़लम कहते हैं, लेकिन मैं तख़्ता-ए-स्याह पर काली चाक से नहीं लिखता, सफ़ेद चाक इस्तेमाल करता हूं कि तख्ता-ए-स्याह की सियाही और ज़्यादा नुमाया हो जाए. ये मेरा ख़ास अंदाज़, मेरा ख़ास तर्ज़ है जिसे फ़हशनिगारी, तरक़्क़ीपसंदी और ख़ुदा मालूम क्या-क्या कुछ कहा जाता है--लानत हो सआदत हसन मंटो पर, कंबख़्त को गाली भी सलीक़े से नहीं दी जाती. ली

किताब पढकर रोना

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रोया हूं मैं भी किताब पढकर के पर अब याद नहीं कौन-सी शायद वह कोई वृत्तांत था पात्र जिसके अनेक बनते थे चारों तरफ से मंडराते हुए आते थे पढता जाता और रोता जाता था मैं क्षण भर में सहसा पहचाना यह पढ्ता कुछ और हूं रोता कुछ और हूं दोनों जुड गये हैं पढना किताब का और रोना मेरे व्यक्ति का लेकिन मैने जो पढा था उसे नहीं रोया था पढने ने तो मुझमें रोने का बल दिया दुख मैने पाया था बाहर किताब के जीवन से पढ्ता जाता और रोता जाता था मैं जो पढ्ता हूं उस पर मैं नही रोता हूं बाहर किताब के जीवन से पाता हूं रोने का कारण मैं पर किताब रोना संभव बनाती है. रघुवीर सहाय आवाज़ : इरफ़ान ........ अवधि : लगभग डेढ मिनट

नंगी आवाज़ें

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मंटो की कहानियाँ मेहनतकश जनता के मनोजगत का दस्तावेज़ भी हैं. सुनिये नंगी आवाज़ें और महसूस कीजिये उस मानवीय करुणा का ताप, जिसे बाहर रहकर पेश कर पाना बडे जिगरे का काम है. शुरुआत में आवाज़ें अरशद इक़बाल और मुनीश की हैं. क़िस्सागो : इरफ़ान Duration: 20 Min.

दरियाई घोडा

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हमारे यहां क़िस्सागोई की पुरानी परंपरा है . पिछले कई बरसों से योरप और अमेरिका के क़िस्सागो दिल्ली आ रहे हैं और इंडिया इंटरनेशनल सेंटर , इंडिया हैबिटैट सेंटर और ब्रिटिश लायब्रेरी जैसे सुरुचिपूर्ण अड्डों पर कथावाचन करके हमारे मुंह आईनों की तरफ़ घुमा रहे हैं . दो - एक दिन इन हलचलों का असर अख़बारों के पेज थ्री पर रहता है और तस्वीरें छपती हैं फिर सब कुछ सामान्य हो जाता है . वो लोग तो यहां तक कह कर चले जाते हैं कि आपके यहां कथावाचन मर रहा है , यह सुनकर हमारे लोग कभी नॊस्टैल्जिया तो कभी सेंस ऒफ़ प्राइड से भर जाते हैं . जिस एक चीज़ की कमी रह जाती है , वो है शर्म . इसी शर्म से उन्हें बचाने के लिये मेरी संस्था रेडियो रेड वाचिक परंपरा को बचाने और पुनर्जीवित करने में लगी है . पिछले दस वर्षों से जारी हमारी कोशिशों में हिंदी की संस्थाओं और संस्कृति संरक्षण के पैरोकारों ने झूठी तसल्ली भी नहीं जोड़ी है . इस वाचिक परंपरा की याद जब विदेश में सक्रिय storytell