आइये जिया साहब से एक बार फिर पढ़ना सीखें

आब--गुम से एक हिस्सा



अवधि : लगभग आठ मिनट

Comments

abcd said…
बुनियादी फ़र्क-हम किसी ऐसी चीज़ पर नही बैट्ते जिस पर लेट ना सके.........जैसे-पहलू-ए-दिल्दार/

:-))

शान्दार,जबर्दस्त,impressive,entertaining,
classy,captivating.brilliant.
शायदा said…
hanste to lagta jaise tawa hans raha ho...amazing . shandar.
and welcome back jee.
सागर said…
कहाँ थे सर ? आखिरकार इस ब्लॉग पर थे कहाँ ?

पढ़ने की यह कला मुझे भी भाती है, अल्फाज़ों, हर्फों, का इतना सही उच्चारण बहुत आकर्षित करता है...

१- इन्ग्लिश्तान का मौसम इतना गलीज ना होता
२- हम कभी किसी ऐसी चीज़ पर नहीं बैठते जिसपर लेट नहीं सकें
३- हँसते तो मालुम होता तवा हंस रहा है...

और क्या क्या निकालूं ... बस मज़ा आ गया... दिन बना दिया अपने

और चाहिए.
सुभान अल्लाह .......क्या अदायगी है .अरसे बाद गहरे लुत्फ़ में डूबते उतरते रहे
शानदार !
इरफ़ान सर आबे-गुम बहुत दिन पहले पढी थी हिन्दी में. आज सुन कर याद बेतरह ताज़ा हो आयी. आप क्या और नहीं सुनवायेंगें? फिर से पढ़ने का मन कर रहा है. पर किताब न जाने कहाँ गयी, कौन ले गया. क्या आप बता सकेंगें कि हिन्दी वाली किताब कहाँ से मिलेगी?

मृत्युंजय
गज्जब गज्जब गज्जब!

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